सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारियों के तबादले को लेकर जो आदेश दिया है, वह बेहद महत्वपूर्ण है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इसका प्रशासनिक कामकाज पर पॉजिटिव असर पड़ेगा। कोर्ट ने केंद्र और राज्यों से कहा है कि वे सिविल सर्वेंट्स के ट्रांसफर और पोस्टिंग के लिए तीन महीने के भीतर सिविल सर्विस बोर्ड का गठन करें। अदालत ने एक और अहम बात यह कही है कि अधिकारी सरकार से कोई भी आदेश मौखिक नहीं बल्कि लिखित में लें। गौरतलब है कि पूर्व कैबिनेट सेक्रेटरी टी.एस.आर सुब्रह्मण्यम समेत 82 पूर्व नौकरशाहों ने ब्यूरोक्रेसी में सुधार को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी जिसमें कहा गया था कि राजनीतिक हस्तक्षेप की वजह से अधिकारी कोई कदम नहीं उठा पाते हैं। नौकरशाही के कामकाज में राजनीतिक हस्तक्षेप का मुद्दा नया नहीं है। बीच-बीच में यह जोर पकड़ता रहा है। पिछले दिनों यूपी कैडर की आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल और हरियाणा कैडर के आईएएस ऑफिसर अशोक खेमका को लेकर उठाए गए कदमों से यह मामला काफी गरमा गया है।
तबादलों के प्रश्न पर राजनेताओं का कहना है कि आम तौर पर ट्रांसफर तभी किए जाते हैं जब कहीं कोई तनाव पैदा हो गया हो, हालात संभल नहीं रहे हों। इसके पीछे जनता को शांत और संतुष्ट करना और मामले की निष्पक्ष जांच कराना मकसद होता है। यह बात एक हद तक सही है। लेकिन बड़ी सचाई यह है कि हर सरकार मनमाफिक अफसरों को तैनात करना चाहती है। सत्ता संभालते ही वह पहले से तैनात अधिकारियों को हटाकर अपने अनुकूल अफसरों को अहम पदों पर बिठाती है। इसमें जातीय और दूसरे समीकरण भी काम करते हैं। कई राज्यों में तो मलाईदार पद पैसे लेकर बांटे जाते हैं। वहां ट्रांसफर-पोस्टिंग ने इंडस्ट्री का रूप ले लिया है। सोचा जा सकता है कि पैसे देकर या किसी की कृपा से पद पाने वाले अधिकारियों की प्राथमिकता क्या होती होगी। लेकिन ऐसे माहौल में उन अफसरों के लिए काम करना सबसे मुश्किल होता है जो ईमानदारी से अपने फर्ज को अंजाम देना चाहते हैं। ऐसे नौकरशाहों के लिए ट्रांसफर और पोस्टिंग को बतौर सजा इस्तेमाल किया जाता है। कुछ ऐसे मामले भी हुए हैं कि सत्तारूढ़ दल के किसी कद्दावर नेता ने अपनी सनक में या फिर एकदम निजी स्वार्थ की वजह से या किसी वर्ग या संप्रदाय के तुष्टीकरण के लिए किसी ईमानदार अफसर का ट्रांसफर करा दिया।
तबादले की तलवार लटकी होने की वजह से कई बार अफसर जरूरी फैसले लेने में हिचकते हैं। इसका खमियाजा अंतत: जनता को भुगतना पड़ता है। एक स्वस्थ जनतंत्र के लिए नौकरशाही का कुछ हद तक स्वायत्त होना जरूरी है। राजनीतिक नेतृत्व को यह बात समझनी होगी। लेकिन ब्यूरोक्रेसी को भी ध्यान रखना होगा कि उसकी ऑटोनॉमी का कोई मतलब तभी है जब वह जनता के लिए काम आए।
तबादलों के प्रश्न पर राजनेताओं का कहना है कि आम तौर पर ट्रांसफर तभी किए जाते हैं जब कहीं कोई तनाव पैदा हो गया हो, हालात संभल नहीं रहे हों। इसके पीछे जनता को शांत और संतुष्ट करना और मामले की निष्पक्ष जांच कराना मकसद होता है। यह बात एक हद तक सही है। लेकिन बड़ी सचाई यह है कि हर सरकार मनमाफिक अफसरों को तैनात करना चाहती है। सत्ता संभालते ही वह पहले से तैनात अधिकारियों को हटाकर अपने अनुकूल अफसरों को अहम पदों पर बिठाती है। इसमें जातीय और दूसरे समीकरण भी काम करते हैं। कई राज्यों में तो मलाईदार पद पैसे लेकर बांटे जाते हैं। वहां ट्रांसफर-पोस्टिंग ने इंडस्ट्री का रूप ले लिया है। सोचा जा सकता है कि पैसे देकर या किसी की कृपा से पद पाने वाले अधिकारियों की प्राथमिकता क्या होती होगी। लेकिन ऐसे माहौल में उन अफसरों के लिए काम करना सबसे मुश्किल होता है जो ईमानदारी से अपने फर्ज को अंजाम देना चाहते हैं। ऐसे नौकरशाहों के लिए ट्रांसफर और पोस्टिंग को बतौर सजा इस्तेमाल किया जाता है। कुछ ऐसे मामले भी हुए हैं कि सत्तारूढ़ दल के किसी कद्दावर नेता ने अपनी सनक में या फिर एकदम निजी स्वार्थ की वजह से या किसी वर्ग या संप्रदाय के तुष्टीकरण के लिए किसी ईमानदार अफसर का ट्रांसफर करा दिया।
तबादले की तलवार लटकी होने की वजह से कई बार अफसर जरूरी फैसले लेने में हिचकते हैं। इसका खमियाजा अंतत: जनता को भुगतना पड़ता है। एक स्वस्थ जनतंत्र के लिए नौकरशाही का कुछ हद तक स्वायत्त होना जरूरी है। राजनीतिक नेतृत्व को यह बात समझनी होगी। लेकिन ब्यूरोक्रेसी को भी ध्यान रखना होगा कि उसकी ऑटोनॉमी का कोई मतलब तभी है जब वह जनता के लिए काम आए।
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